Anubaddh Kevali

भगवान महावीर के पश्चात् हुए तीन केवली भगवन्तों का परिचय देते हुए “तिल्लोयपण्णत्ती” ग्रन्थ में लिखा है कि---

जादो सिद्धो वीरो तद्दिविसे गोदमो परमणाणी ।
जादो तिरंस सिद्धे सुधम्मसामी तदो जादो ।।
तम्मि कदकम्मणासे जंलुसामि त्ति केवली जादो ।
तत्थ वि सिद्धि पव्वण्णे केवलिणो णत्थि अणुबद्धा ।।
वासट्ठी वासाणिं गोदमपहुदीण णाण वंताणं ।
धम्मपयट्टणकाले परिमाणं पिंडरूवेणं ।।

जिस दिन तीर्थंकर भगवान महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए, उसी दिन उनके मुख्य गौतम गणधर केवलज्ञानी हुए। गौतमस्वामी मुक्त हुए, उसी दिन सुधर्मस्वामी केवली हुए और जिस दिन वे मुक्त हुए, उसी दिन जम्बूस्वामी केवलज्ञानी हुए। जम्बूस्वामी के मुक्त होने के बाद कोई अनुबद्ध केवली नहीं हुए। इन तीनों केवली भगवन्तों का धर्म प्रवर्तन का सामूहिक कुल समय 62 वर्ष है।

(तिल्लोयपण्णत्ती, 4/गाथा 1476-1477-1478)

श्री इन्द्रभूति गौतम

समय : (ईस्वी सन् पूर्व 607-515 पूर्व......विक्रम संवत पूर्व 550-458 पूर्व)

इन्द्रभूति गौतम गणधर ने भगवान महावीर के उपदेशों को श्रृंखलाबद्ध व्यवस्थित और वर्गीकृतरूप में संकलित करके उनकी वाणी को स्थायित्व प्रदान किया।

श्री इन्द्रभूति गौतम का परिचय

भरतक्षेत्र के मगध देश के गोब्बर नामक नगर में एक शाण्डिल्य नाम का धनिक गुणवान ब्राह्मण था, उसकी स्थण्डिला नाम की गुणवान पत्नी थी। इन्द्रभूति गौतम का जन्म मगधदेश के गोब्बर नाम के नगर में हुआ था। उनकी माता का नाम पृथ्वी और पिता का नाम वसुभूति था। उनका गोत्र गौतम था। गौतम शब्द कुल तथा वंश का वाचक है। वसुभूति ब्राह्मण धर्म के उपासक और वेद विद्या में पारंगत था।

इन्द्रभूति का जन्म विक्रम संवत् पूर्व 550के साल में हुआ। उनके दो भाई भी थे-अग्निभूति और वायुभूति।

स्वर्गमें जो बड़ा देव था (रानीका जीव), वह उनका गौतम नाम का पुत्र हुआ। दूसरा देव गार्ग्य (अग्निभूति) नामक पुत्र हुआ और तीसरा देव उसी ब्राह्मण की दूसरी पत्नी से भार्गव (वायुभूति) नामका पुत्र हुआ। तीनों भाईयों में परस्पर अत्यन्त प्रेम था, तीनों भाईंयों ने ब्राह्मणों की समस्त ही विद्यायें सीख ली थीं और वेद-वेदान्त में पारंगत बने।

इन्द्रभूति गौतम का व्यक्तित्व विराट और प्रभावशाली था। पाँच सौ छात्र उनके पास अध्ययन करते थे।

मगध में आर्य सौमिल नाम का एक विद्वान ब्राह्मण, ब्राह्मणवर्ग का नेतृत्व करता था, वह पूर्व भारत में अत्यन्त प्रतिष्ठित था। उसने एक विराट यज्ञ का आयोजन किया। उसमें पूर्व भारत के दिग्गज विद्वानों को उनके शिष्य परिवार के साथ आने का आमन्त्रण दिया। साधारण जनता को वैदिक विचारों की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये इस यज्ञ का आयोजन किया था। इस महायज्ञ का नेतृत्व मगध के प्रसिद्ध विद्वान तथा प्रकाण्ड तर्कशास्त्री इन्द्रभूति गौतम के हाथ में था। इस अनुष्ठान मे अग्निभूति, वायुभूति सहित ग्यारह महा पण्डित उपस्थित थे। मगध जनपद के हजारों नागरिक दूर-दूर से इस यज्ञ के दर्शन करने आये थे।

उसी समय राजगृही के समीप विपुलाचल पर्वत पर तीर्थंकर महावीर प्रभु की देशना सुनने के लिये आकाशमार्ग से असंख्य देव, विमान द्वारा पुष्पवृष्टि करते-करते वहाँ से जा रहे थे।

यहाँ यज्ञ मण्डप में स्थित इन्द्रभूति आदि विद्वान, इन देवों के समुदाय को देखकर रोमांचित होकर कहने लगे-“यज्ञ महिमा से प्रभावित होकर आहुति ग्रहण करने के लिये इन देवों का वृन्द आ रहा है।”......देवों के विमान तो इस यज्ञ मण्डप के ऊपर से आगे चले गये.......सबकी आँखे नीची हो गयीं, निराश हो गये और आश्चर्य से विचार करने लगे कि अरे ! यह देवों का समुदाय भी किसी की माया में फँस गया लगता है। यज्ञ मण्डप छोड़कर कहाँ जा रहे हैं ? इन्द्रभूति ने तो देवों को प्रभावित करने के लिये बुलन्द आवाज से वेद मन्त्रों का पठन शुरु किया, तथापि देवों के विमान तो आगे निकल गये। इन्द्रभूति के अहंकार पर चोट लगी। जब इन्द्रभूति ने जाना कि यह देव-विमान तो महावीर प्रभु की समवसरण सभा में जा रहे हैं, तब उसका मन उदास हो गया।

उसी समय, सौधर्म इन्द्र, ब्राह्मण का रूप बनाकर इन्द्रभूति के समीप आये और कहा :

गुरुवर ! आपकी विद्वत्ता की यशोगाथा देशभर में व्याप्त है। वेद और उपनिषद का ज्ञान आपकी चेतना के कण-कण में छा रहा है। आप तो दर्शन, न्याय, तर्क, ज्योतिष और आयुर्वेद के मर्मज्ञ विद्वान हैं; मुझे एक गाथा का अर्थ समझ में नहीं आ रहा है, इसलिए उसका अर्थ जानने के लिये आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ। आपकी आज्ञा हो तो उस गाथा को मैं प्रस्तुत करूँ।

इन्द्रभूति गौतम, इस बटुक रूपधारी ब्राह्मण की विनय देखकर प्रसन्न हुए। उन्हें लगा कि इसे जानने की जिज्ञासा है, यह नम्र और अनुशासित है; इसलिए इसकी जिज्ञासा पूर्ण करना मेरा कर्तव्य है।

ब्राह्मण रूपधारी इन्द्रने नम्रतापूर्वक कहा :-

त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीव षट्काय लेश्या:।

पंचान्येडचास्तिकाया: व्रत समिति गति ज्ञान-चारित्र भेदा:।।

इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवन महिते: प्रोक्त मर्हदभिरीशै:।

प्रत्येति श्रद्धाति स्पृशति च मतिमान य: च वै शुद्ध द्रष्टि:।।

इन्द्रभूति ने कहा-यदि मैं इस गाथा का अर्थ समझाऊँ तो तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा, यह मेरी शर्त है।

ब्राह्मण ने हाँ किया।

इन्द्रभूति बहुत समय तक इस गाथा का अर्थ विचारते रहे परन्तु उन्हें कुछ समझ में नहीं आया; इसलिए उन्होंने उस ब्राह्मण से पूछा :

“तुमने यह गाथा कहाँ से सीखी है ? यह गाथा किस ग्रन्थमें हैं ?” ब्राह्मणने कहा :-‘मैंने यह गाथा, मेरे गुरु तीर्थंकर महावीर से सीखी है परन्तु उन्होंने कितने ही दिनों से मौनव्रत धारण किया है; इसलिए इसका अर्थ उनसे मुझे जानने को नहीं मिला। आपकी प्रतिष्ठा वर्षों से सुनी है, इसलिए मैं इस गाथा का अर्थ जानने के लिये आपके समीप आया हूँ।’

इन्द्रभूति गौतम को पता नहीं चला कि यह पंचास्तिकाय क्या है ? छह जीवनिकाय क्या है ? पाँच समिति, पाँच व्रत, पाँच ज्ञान क्या है ? यह तो मैंने सुना ही नहीं। इन्द्रभूति को तो जीव के अस्तित्व सम्बन्धी ही शंका थी; इसलिए वे दुविधा में पड़ गये। इस साधारण ब्राह्मण के समीप स्वयं का मान खण्डित होने का प्रसंग आया। उन्होंने कहा-‘चलो ! तुम्हारे गुरु की उपस्थिति में ही इस गाथा का अर्थ बताऊँगा। मैं मेरी विद्वत्ता का प्रभाव तेरे गुरु को बतलाना चाहता हूँ।’

इन्द्रभूति गौतम की यह बात सुनकर ब्राह्मण तो मन में प्रसन्न हुआ और विचार करने लगा कि-‘मुझे तो यही चाहिए था, मेरा कार्य तो पूर्ण हो गया। अब तीर्थंकर महावीर के समवसरण में पहुँचते ही इनका अभिमान पिघल जायेगा और शंकाओ का समाधान स्वयं हो जायेगा।’

इन्द्रभूति, समवसरण की तरफ चलने लगे। जो तत्त्व स्वयंको नहीं समझ में आता था, उसे समझने की गहरी जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उनके अन्तर में अब हार-जीत की मुख्यता नहीं, अपने ज्ञान में समाधान करने की धगश है। ऐसे उनके अज्ञान का अन्त आने की तैयारी हुई। उनकी ज्ञान-प्राप्ति की काललब्धि पक गयी थी।

जहाँ मानस्तम्भ के समीप आये और प्रभु का वैभव देखा, वहाँ तो उन्के स्वयं के मिथ्याज्ञान का अभिमान पिघल गया। उनका अभिमानी मन अब नम्रता से द्रवीभूत हो गया...... गन्धकुटी में विराजमान तीर्थंकर महावीर प्रभु की मंगल मुद्रा के दर्शन होते ही उनके प्रति परम बहुमान का भाव उत्पन्न हुआ......कैसी शान्त वीतरागमुद्रा है। इनके आत्मा की दिव्यता की क्या बात ! अवश्य ये सर्वज्ञ हैं.......उनके अन्तर में जीव के अस्तित्व सम्बन्धी सूक्ष्म शंकाएँ दूर हो गयीं। महावीर प्रभु के केवलज्ञानरूपी प्रकाशमें उनके मिथ्यात्व का नाश हुआ, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्रगट हुआ।

उन्होंने तन से और मन से निर्ग्रन्थ बनने का संकल्प किया। इन्द्रभूति गौतम ने प्रभु के पादमूल में नम्रीभूत होकर संयम धारण किया, दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण की। इन्द्रराज हर्षपूर्वक उन्हें मुनिवरों की सभा की ओर ले गये। जहाँ वे महावीर प्रभु को नमस्कार करके अपने स्थान पर बैठे कि तुरन्त ही महावीर प्रभु के सर्वांग से “ओम”..........ॐ.....दिव्यध्वनि खिरने लगी.......

यह आश्चर्यकारी दिव्यध्वनि सुनते ही समवसरण में बैठे हुए सभी जीव आनन्द में सराबोर हो गये.....चैतन्यतत्त्व का अचिन्त्यस्वरूप सुनते हुए बहुत जीवों को उसी क्षण निर्विकल्प अनुभूति हुई, पवित्र सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए......

इन्द्रभूति गौतम, रत्नत्रयसंयुक्त मुनिवरों के नायक बने...... उन्हें मन: पर्ययज्ञान उत्पन्न हुआ। वे अब चार ज्ञान के धनी होकर तीर्थंकर महावीर की सभा के मुख्य गणधर हुए। वे बारह अंग के ज्ञाता श्रुतकेवली हुए। उन्हें अनेक महान लब्धियाँ प्रगट हुई।

गौतम गणधर ने भगवान महावीरके उपदेश को श्रृंखलाबद्ध व्यवस्थित और वर्गीकृतरूप में संकलित करके उनकी वाणी को स्थायित्व दिया। उन्होंने बारह अंग की रचना क्रम से अन्तर्मुहूर्त में की।

वह पवित्र दिन था (गुजराती) आषाढ़ कृष्ण एकम् (और शास्त्रीय श्रावण कृष्ण एकम्) धर्मतीर्थ की उत्पत्ति उसी दिन हुई। वैशाख शुक्ल दशमी के दिन महावीर प्रभु को केवलज्ञान हुआ और तत्पश्चात् 66वें दिन उनकी दिव्यदेशना शुरु हुई।

इन्द्रभूति गौतम का ऐसा अद्भुत परिवर्तन देखकर, सौधर्म इन्द्र ने ब्राह्मण का रूप छोड़कर, अपना असली इन्द्र का रूप धारण करके गौतम गणधर के चरणों में वन्दना की।

श्री वीरसेन आचार्यदेव ने केवलज्ञान की उत्पत्तिके 66 दिन तक देशना प्रगट नहीं होने के कारण की चर्चा करते हुए लिखा है-‘सौधर्म इन्द्र भी काललब्धि के अभाव में, तत्काल गणधर की खोज नहीं कर सके। काललब्धि सम्बन्धी प्रश्न नहीं किया जा सकता क्योंकि वह स्वभाव है और स्वभावमें तर्क का प्रवेश नहीं है।’

इस प्रकार इन्द्रभूति गौतम पचास वर्ष की उम्र से मोक्षमार्ग के पथिक बने। वे तत्त्वज्ञानी, विशिष्ट साधक, विरल अध्यात्मयोगी, तपस्वी तथा भव्य जीवों के कल्याण की उग्र भावना वाले गणधर थे।

इन्द्रभूति गौतम के दिगम्बर दीक्षा ग्रहण करने के समाचार मगध देश में चारों ओर बिजली के वेग की तरह फैल गये। शिष्य परिवारसहित उनकी दीक्षा के समाचार सुनकर अग्निभूति, वायुभूति आदि समस्त विद्वानों को आश्चर्य हुआ। वे सब उनके शिष्य के साथ यहाँ विपुलाचल पर आये.......यहाँ आते ही उन सबका हृदय परिवर्तन हुआ और तीर्थंकर महावीर के चरणों में दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण करके वीर प्रभु की सभा में अग्निभूति दूसरे नम्बर के गणधर और वायुभूति तीसरे नम्बर के गणधर बने।

तीर्थंकर महावीर भगवान ने तीस वर्ष तक दिव्यदेशना द्वारा लाखों जीवों को परम शान्त चैतन्यरस का पान कराया। अभी पंचमकाल शुरु होने को तीन वर्ष आठ माह और पन्द्रह दिन शेष थे, तब प्रभु महावीर का विहार बन्द हुआ, वाणी का योग भी मोक्षगमन के दो दिन पहले से बन्द हुआ।

गौतम इत्यादि मुनिवर अपने ध्यान में अधिक से अधिक एकाग्र हुए। कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (गुजराती आसो शुक्ल चतुर्दशी) की रात्रि को, अमावस्या के प्रात: काल से पहले, वीर प्रभु तेरहवाँ गुणस्थान उल्लंघ कर चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थान में विराजित हुए और क्षण में पावापुरी से लोक के अग्र भाग में सिद्धालय में पधारे।

गौतमस्वामी विचार करते हैं-30-30 वर्ष तक मैं जिनके साथ रहा, ऐसे मेरे वीर प्रभु निर्वाण को प्राप्त हुए और मैं अभी छद्मस्थ रहा। मेरी साधना आज ही पूर्ण करूँ-ऐसे आराधना में उत्कृष्टरूप से अपने आत्मा को जोड़कर, चैतन्य की अनुभूति में गहरे उतर गये। उसी दिन इन्द्रभूति गौतम ने केवलज्ञान प्राप्त किया; अब वे अरहन्त केवली और सर्वज्ञ हुए। उसी दिन उनके शिष्य सुधर्मास्वामी श्रुतकेवली बने।

इन्द्रभूति गौतमस्वामी ने बारह वर्ष तक केवली के रूप में संघ का संचालन किया। उनके निमित्त से अनेक जीवों ने ज्ञान प्राप्त किया था।

उनका निर्वाण वीर संवत् 12 में 92 वर्ष की उम्र में हुआ। जिस दिन वे मोक्ष में पधारे, उसी दिन सुधर्मास्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ।

श्री गौतमस्वामी के पूर्वभव की कथा के लिये बोधि-समाधि-निधान, कथा-1 देखें।


श्री सुधर्माचार्य [अपरनाम लोहाचार्य (प्रथम)

जयधवला, तिल्लोयपण्णत्ती और इन्द्रनन्दीकृत श्रुतावतार में लोहाचार्य के नाम के स्थान पर सुधर्माचार्य का नाम आता है। सुधर्माचार्य (लोहाचार्य) सात प्रकारकी ऋद्धिसहित और समस्त श्रुतज्ञान के पारगामी थे। अपने उपदेशामृत द्वारा जनसमूह के अज्ञान अन्धकार का नाश किया था।

श्री सुधर्माचार्य का परिचय

मगधदेश के संवाहन नगर मे राजा सुप्रतिष्ठ राज्य करते थे। उनकी धर्मवत्सला सहधर्मिणी का नाम रुक्मिणी था। उन्हें सुधर्म नामक प्रिय पुत्र था जो कुशाग्र बुद्धि, विद्याओं के परिज्ञान में ज्येष्ठ, समस्त शास्त्रों का ज्ञाता, अनेक कलाओं का धारक और सज्जनों के मन को आनन्द प्रदाता एवं शत्रु पक्ष के राजकुमारों को भय उत्पन्न करने वाला, अर्थात् पराक्रमी था।

एक दिन समवसरण सहित भगवान महावीर के मङ्गल शुभागमन के समाचार सुनकर, राजा सुप्रतिष्ठ सपरिवार प्रभु की वन्दना एवं धर्मोपदेश के लाभ की भावना से समवसरण में पहुँचते है।

प्रशान्त मुद्राधारी वीर प्रभु का साक्षात्कार होते ही राजा सुप्रतिष्ठ अत्यन्त हर्षित हुआ। अहो ! जैसे रङ्क पुरुष, चिन्तामणि को पाकर निहाल हो जाता है, उसी प्रकार वीर प्रभु के दर्शन करके राजा परम प्रमुदित हुआ। और अनके प्रकार से जिनेन्द्रदेव की स्तुति करते हुए वह अपने योग्य स्थान पर बैठ गया।

“भविभागन बचजोगेवसाय” की उक्ति को चरितार्थ करते हुए उसी समय चैतन्यस्वरूप की गर्जना करती हुई महावीर भगवान की दिव्यध्वनि खिरने लगी।

प्रभु की दिव्यध्वनि में राजा ने सुना-अहो ! भव्य जीवों ! आत्मस्वभाव अचिन्त्य वैभवशाली है। प्रत्येक आत्मा स्वभाव से भगवान है। यदि सही दिशा में पुरुषार्थ करे तो प्रगट पर्याय में भी भगवान बन सकता है। अरे ! खेद है कि इस जीव ने अब तक पाँच इन्द्रियों के विषय रूपी मदिरा का पान करके अपने आत्मस्वरूप को भुला दिया। जिस प्रकार अग्नि कभी भी ईंधन से तृप्त नहीं होती; उसी प्रकार पञ्चेन्द्रियों की विषय तृष्णा कभी भी भोगसामग्री से तृप्त नहीं हो सकती।

हे भव्य जीवों ! यह जीवन क्षणभंगुर है, शीघ्र आत्महित करने का यह उत्तम अवसर आया है। चिन्तामणि सदृश इस महा दुर्लभ अवसर को देहाश्रित पञ्चेन्द्रियों के भोगों में गँवा देना तो राख के लिए रत्न जलाने जैसा अविवेकपूर्ण कृत्य है। चेतो ! चेतो !! आत्मकल्याण का अमूल्य अवसर बीता जा रहा है।

इस प्रकार तीर्थंकर महावीर भगवान की दिव्यध्वनि में निज चैतन्यतत्त्व की अपूर्व महिमा एवं संसार-देह-भोगों की नि:सारता की सिंहगर्जना से राजा सुप्रतिष्ठ का अन्तरात्मा जागृत हुआ, और वह संसार-शरीर-भोगों से अत्यन्त विरक्त होकर नग्न दिगम्बर वीतरागी सन्त बन गया। अहो ! धन्य वे मुनिराज ! वे मुनिराज तो तीर्थंङ्कर महावीर प्रभु के चौथे गणधर भी हो गये। क्या उनकी अद्भुत पात्रता ! क्या उनका अपूर्व पुरुषार्थ ! यह देखनेवाले आश्चर्यचकित हो गये।

अपने पिता को भवदुःख विनाशिनी जिनदीक्षा से सुशोभित देखकर सुधर्मकुमार के मन में भी वैराग्यभाव प्रस्फुटित हो गया। कुमार विचारने लगा-अरे ! अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने अनन्त बार अनेक प्रकार के मनोरम भोग भोगे; अनन्त बार बाह्य राज्य-वैभव का उपभोग किया, किन्तु चैतन्यपद का राज्य आज तक प्राप्त नहीं कर पाया। अहा ! अब तो इस मनुष्यभव में मुक्तिवधू के स्वयंवर स्वरूप भगवती जिनदीक्षा का मङ्गल अवसर आया है। मैं भी आज ही भगवती जिनदीक्षा अङ्गीकार करूँगा।

इस प्रकार चिन्तवन करके सुधर्मकुमार ने भी जिनदीक्षा अंङ्गीकार कर ली।

जिनकी वृत्ति आकाश के समान निसङ्ग और वायु के समान निर्लेप है—ऐसे मुनिराज सुधर्मस्वामी मुनिसंघ के साथ विहार करने लगे। जहाँ-जहाँ भी मुनिराजश्री के चरण पड़ते, वह धरती धन्य हो जाती। वन में जाति विरोधी पशु भी मुनिराज की परम शान्तमुद्रा को देखकर पारस्परिक वैरभाव का परित्याग कर देते।

शत्रु-मित्र, कञ्चन-काँच, महल-श्मशान के प्रति समभावी मुनिराज सुधर्मस्वामी विहार करते-करते राजगृही नगरी के उद्यान में पधारे। मुनिराज के शुभागमन से सारा वन बसन्तोत्सव जैसा प्रफुल्लित हो गया।

एक बार सुधर्मस्वामी मुनिराज संघसहित विहार करते हुए उग्रदेश के धर्मपुर नगर में पधारे और समीपवर्ती उपवन में स्थित होकर आत्माराधना करने लगे। उग्रदेश के राजा का नाम यम था। उसके उनके रानियाँ थीं, जिनमें धनवती रानी से गर्धभ नाम का पुत्र और कौणिका पुत्री उत्पन्न हुई थी। शेष रानियों से पाँच सौ पुत्र उत्पन्न हुए थे। सभी पाँच सौ पुत्र एक-दूसरे के प्रति वात्सल्ययुक्त, धर्मात्मा और संसार के प्रति अत्यन्त उदासीन थे। इस राजा के राज्य मन्त्री का नाम दीर्घ था, जो अत्यन्त बुद्धिमान होने के साथ-साथ कुशल राजनीतिज्ञ भी था।

अपने ही वन में सुधर्मस्वामी का शुभागमन जानकर और नगर निवासियों को पूजा की सामग्री लेकर मुनिसंघ की पूजा-वन्दना करने हेतु जाते देखकर, राजा यम भी अपने पाण्डित्य के अभिमान से युक्त होकर, वीतरागी समभावी मुनिराजों की निन्दा करते हुए उनके समीप पहुँचा। वीतरागी मुनिराजों की निन्दा और अपने क्षायोपशमिक ज्ञान के अभिमान के फलस्वरूप राजा यम ने अपनी आत्मा को भयङ्कर दु:ख समुद्र में डूबो दिया।

अरे ! धर्मात्मा का अवर्णवाद वस्तुत: धर्म का ही अवर्णवाद है, जिसका फल अनन्त संसार की दु:खमय दशाओं में परिभ्रमण करना होता है।

राजा यम को भी इस दुष्कृत्य से ऐसे तीव्र कर्म का उदय आया कि उसका समस्त पाण्डित्य क्षणभर में नष्ट हो गया। विचारो.......कहाँ तो अल्प समय पूर्व पाण्डित्य से परिपूर्ण राजा यम की दशा और अब क्षणभर में कहाँ उनकी बुद्धिविहीन दशा !! पर्यायकी कैसी क्षणभंगुरता !! आत्मज्ञानरहित क्षयोपशमज्ञान का कभी भी अभिमान नहीं करना, कभी भी उसकी महिमा नहीं करना, कभी भी उसमें एकत्वबुद्धि नहीं करना। वह ज्ञान तो मिथ्याज्ञान है, अज्ञान है। अहो ! इस परिवर्तनशील पर्याय के चक्रव्यूह से पार त्रिकाली ध्रुवतत्त्व ही विश्वसनीय है, उसमें ही अहंपना करना योग्य है प्रति क्षण बदलने वाली अवस्थाएँ किंचित् भी आश्रय करने योग्य नहीं हैं।

राजा यम को अपनी इस दीन-हीन दशा देखकर अत्यन्त आश्चर्ययुक्त खेद हुआ। उसने मन ही मन अपने दुष्कृत्य और खराब भावना की निन्दा करते हुए, मुनिराज सुधर्माचार्य की तीन प्रदक्षिणा दीं और अत्यन्त विनयपूर्वक नमस्कार करके धर्मोपदेश श्रवण की इच्छा से टकटकी लगाकर मुनिराज को देखने लगा। मुनिराज ने भी अकारण करुणा बरसाते हुए अपने दिव्योपदेश में कहा---

अहाहा ! सारी दुनिया का विस्मरण हो जाए-ऐसा तेरा परमात्मतत्त्व है। अरे रे ! तीन लोक का सुख का नाथ होकर राग में रुल गया ! राग में तो दु:ख की ज्वाला जलती है, वहाँ से दृष्टि को हटा ले और जहाँ सुखका सागर भरा है, वहाँ अपनी दृष्टि को लगा दे। राग को तू भूल जा। तेरे परमात्मतत्त्व को पर्याय स्वीकारती है, परन्तु उस पर्यायरूप मैं हूँ-यह भी भूल जा। अविनाशी भगवान के समक्ष क्षणिक पर्याय का क्या मूल्य ? जहां पर्याय को ही भूलने की बात है, वहाँ राग और शरीर की बात ही कहाँ रही ? अहाहा ! एक बार तो मुर्दे भी खड़े हो जाएँ-ऐसी यह बात है, अर्थात् सुनते ही उछलकर अन्तर में जाए-ऐसी बात है।

मुनिराज सुर्धमस्वामी के मुखरूपी चन्द्रमा से झरते उपदेशामृत का पान करके राजा यम तृप्त हुआ। उसे अन्तर में बहुत शान्ति प्राप्त हुई। अपनी पर्याय की क्षणभर में बदली हुई अवस्था के विचार से उसे अंतर में वैराग्य जागृत हुआ और वह अपने पुत्र गर्धभ को राज देकर अपने पाँच सौ पुत्रों सहित भगवती जिनदीक्षा अङ्गीकार करके आत्मसाधना में लीन हुआ।

जिस दिन गौतमस्वामी निर्वाण को प्राप्त हुए, उसी दिन सुधर्माचार्य को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। वे अरहन्त केवली-सर्वज्ञ हुए और बारह वर्ष तक (वीर निर्वाण संवत् 13 से 24 तक-ईस्वी सन् पूर्व 515 से 503 तक) अरहन्त पद में रहे। केवली सुधर्मस्वामी का निर्वाण विपुलाचल पर वीर निर्वाण संवत् 24 में (ईस्वी सन् पूर्व 503में) हुआ।


अन्तिम केवली श्री जम्बूस्वामी

जम्बूस्वामी, चम्पानगरी के सेठ अर्हतदास के पुत्र थे और उनकी माता का नाम जिनदासी था। उनके गर्भ में आने से पूर्व ही उनकी माता ने हाथी, सरोवर, शालिक्षेत्र, निर्धूम अग्नि शिखा, और जम्बूफल-ये पाँच स्वप्न देखे। स्वप्न का फल “उन्हें यशस्वी पुत्र का जन्म होगा”-ऐसा जानकर माता को अत्यन्त प्रसन्नता हुई।

जम्बूकुमार बालपन से ही गम्भीर, वैरागी तथा पराक्रमी थे। श्रेष्ठी पुत्र जम्बूकुमार का स्थान राजा श्रेणिक के राजदरबार में और उस समय के समाज में महत्त्वपूर्ण था। उन्होंने एक बार मदोन्मत्त हाथी को वश किया, उनकी ऐसी वीरता और साहस से प्रभावित होकर सागरदत्त सेठ ने अपनी पद्मश्री नाम की कन्या; कुबेरदत्त ने कनकश्री; वैश्रवण सेठ ने विनयश्री और धनदत्त सेठ ने रूपश्री का विवाह जम्बूकुमार के साथ करने का निर्णय किया।

जम्बूकुमार ने तो एक मुनिराज से उपदेश सुनकर विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण करने का विचार किया था, तथापि माता-पिता, पुत्र को परिवार के बन्धन में रखने के लिए उनका विवाह कराते हैं। चारों ही देवांगना जैसी सुन्दर कन्यायें अपने हावभाव, रूप-लावण्य और बुद्धि चातुर्य से उनके हृदय को विचलित करने के प्रयत्न करती हैं परन्तु जम्बूकुमार तो मेरु पर्वत की तरह अडिग रहते हैं। उसी रात्रि को विद्युतचर नामका चोर जम्बूकुमार के महल में चोरी करने आता है परन्तु जम्बूकुमार तथा उनकी नवविवाहित स्त्रियों की चर्चा सुनकर, जम्बूकुमार की वैराग्य परिणति देखकर वह भी जम्बूकुमार के साथ भगवान महावीर की धर्मसभा में दीक्षित होता है। चारों ही गुणवान कन्याओं ने भी अपनी रुचि, विषय-कषाय से हटाकर वैराग्य की और लगायी और दीक्षा अंगीकार करके आर्यिका हो गयीं। जम्बूकुमार की माता भी आर्यिका बन गयी और पिता ने मुनिव्रत धारण किया। इस प्रकार समग्र वातावरण अत्यन्त वैराग्यमय बन गया।

मुनिराज जम्बूकुमार निरन्तर आत्मसाधना में लीन रहने लगे। मथुरा नगरी के चौरासी नामक स्थल पर उग्र तप किया। उनके गुरु सुधर्मस्वामी केवली भगवान को निर्वाण की प्राप्ति हुई, उसी दिन जम्बूस्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और वे अरहन्त सर्वज्ञ हुए। अन्तिम केवली श्री जम्बूस्वामी भगवान ने 38 वर्ष तक मगध से मथुरा तक के अनेक प्रदेशों में विहार करके धर्म का उपदेश प्रदान किया और अन्त में वीर निर्वाण संवत् 62 में (ईस्वी सन् पूर्व 465में) जम्बूस्वामी निर्वाण को प्राप्त हुए। जम्बूस्वामी के निर्वाण पश्चात् कोई अनुबद्ध केवली नहीं हुए।

इस प्रकार तीर्थंकर महावीर भगवानके निर्वाणके पश्चात्-

क्रम उनका नाम उनका समय वीर निर्वाण सं. ईस्वी सन् पूर्व ‍(B.C.)
1. श्री गौतमस्वामी 12 वर्ष 1 से 12 527-515
2. श्री सुधर्मस्वामी 12 वर्ष 13 से 24 515 से 503
3. श्री जम्बूस्वामी 38 वर्ष 25 से 62 503 से 465
- - कुल 62 वर्ष - -

तीनों ही अनुबद्ध केवली भगवन्तोंका धर्म प्रवर्तनका सामूहिक समय 62 वर्षका है।