वीतरागी जैनशासन की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है क्योंकि यह जैनशासन शाश्वत् सत्य पर आधारित है। इस शाश्वत् सत्य में किसी भी काल में फेरफार नहीं होता। इस वीतरागी जिनशासन की गौरवपूर्ण परम्परा के पुनीत प्रवाह में, जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में इस चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान से लेकर अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने शाश्वत् सत्य के प्रतिपादक जैनदर्शन में वस्तु-व्यवस्था का प्रतिपादन किया है। शासननायक भगवान महावीर के पश्चात् इस परम्परा में अनेक आचार्य-मुनिवर तथा ज्ञानी-विद्वान, पण्डितवर्यों ने अपनी आत्मसाधना के साथ-साथ भव्य जीवों के कल्याण के कारणभूत इस जैनदर्शन के प्रवाह को सतत् प्रवाहित रखा है।
जैन परम्परा के अनुसार भरतक्षेत्र के कालचक्र में परिवर्तन हुआ ही करता है। यद्यपि काल का प्रवाह अनादि-अनन्त है, तथापि उस कालचक्र के छह विभाग हैं।
काल |
काल का नाम |
उसका समय |
1 |
सुषमासुषमा (अति सुखरूप) |
4 कोडाकोडी सागर |
2 |
सुषमा (सुखरूप) |
3 कोडाकोडी सागर |
3 |
सुषमादुषमा (सुख-दुःखरूप) |
2 कोडाकोडी सागर |
4 |
दुषमासुषमा (दुःख-सुखरूप) |
1 कोडाकोडी सागर में 42000 वर्ष कम |
5 |
दुषमा (दुःखरूप) |
21000 वर्ष |
6 |
दुषमादुषमा (अति दुःखरूप) |
21000 वर्ष |
- |
- |
कुल 10 कोडाकोडी सागर |
जिस प्रकार चलती हुई गाडी के पहिये का प्रत्येक भाग, नीचे से ऊपर की ओर तथा ऊपर से नीचे की ओर गति करता है; उसी प्रकार ये छह विभाग भी क्रमशः सदा ही परिवर्तित हुआ करते हैं। जिस समय जगत सुख से दुःख की ओर जाता है, जिसमें जीवों के ज्ञान आदि की क्रमशः न्यूनता/हानि होती है, उस समयचक्र को ‘अवसर्पिणी काल’ कहते हैं और जिसमें जीवों के ज्ञान आदि की क्रमशः वृद्धि होती है, जब जीव दुःख से सुख की ओर जातें हैं, उस समयचक्र को ‘उत्सर्पिणीकाल’ कहते हैं।
अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल का कुल समय बीस कोडाकोडी सागर है, जिसे एक कल्पकाल कहा जाता है। असंख्यात अवसर्पिणी काल व्यतीत होने के पश्चात् एक हुण्डावसर्पिणी काल (अति निकृष्ट काल) आता है। अभी ऐसा ही हुण्डावसर्पिणी काल का पाँचवाँ काल यहाँ (भरत क्षेत्र में) चल रहा है। उसके 21000 वर्ष में से अभी लगभग 2546 वर्ष व्यतीत हो गये हैं, अभी लगभग 18454 वर्ष बाकी है।