श्रुत स्कंध की रचना – द्रव्यश्रुत
ज्ञान
जीव का विशेष गुण, वह ज्ञान है अथवा जाननमात्र वह ज्ञान है।
ज्ञान के आठ भेद
- 1 केवलज्ञान
- 2 मन:पर्ययज्ञान
- 3 अवधिज्ञान
- 4 विभंग ज्ञान (कुअवधिज्ञान)
- 5 श्रुतज्ञान
- 6 कुश्रुतज्ञान
- 7 मतिज्ञान
- 8 कुमतिज्ञान
श्रुतज्ञान
- अवग्रह से लेकर धारणा पर्यन्त मतिज्ञान द्वारा जाननेमें आये हुए अर्थके निमित्तसे अन्य अर्थका ज्ञान होना, वह श्रुतज्ञान है।
- जो परोक्षरूप से सर्व वस्तुओंको अनेकान्तरूप दर्शाता है।
- संशय, विपर्यय आदि से रहित ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं।
- श्रुतज्ञान, मतिज्ञानपूर्वक होता है।
- आत्माकी सिद्धि के लिये मति-श्रुतज्ञान नियत कारण है।
श्रुतज्ञान के भेद
द्रव्यश्रुत और भावश्रुत
द्रव्यश्रुत-भावश्रुत
आचारांग आदि बारह अंग, उत्पाद पूर्वादि चौदह पूर्व और सामायिक आदि चौदह प्रकीर्णकस्वरूप द्रव्यश्रुत है। और उसके निमित्त से उत्पन्न होनेवाला निर्विकार स्व-अनुभवरूप ज्ञान, वह भावश्रुत जानना।
द्रव्यश्रुत के भेद
अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य।
अंगकी व्याख्या
तीनों ही काल के समस्त द्रव्य अथवा पर्यायों की ‘अंगति’ अर्थात् प्राप्त होता है अथवा व्याप्त करता है, वह अंग है। अथवा समस्त श्रुत के और उसके आचार आदिरूप अवयव को अंग कहते हैं।
अंग प्रविष्ट
आचारांग आदि बारह भेद सहित है, वह अंग प्रविष्ट है।
अंगबाह्य
गणधरदेव के शिष्य प्रशिष्य द्वारा अल्पायु बुद्धिबल वाले जीवों को उपदेशार्थ अंगो के आधार से रचित संक्षिप्त ग्रन्थ, अंग बाह्य है।
बारह अंग की रचना
तीर्थंकरदेव की ओमकार ध्वनि सुनते हुए समवसरण में गणधरदेव को और अन्तर्मुहूर्त में बारह अंगरूप द्रव्यश्रुतज्ञान प्रगट होता है। गणधरदेव बीज, कोष्ठ, पदानुसारी, तथा समभिन्नश्रोत्रत्व बुद्धि-ऋद्धिधारी होने से बारह अंग का ज्ञान शक्य बनता है।
अक्षर
- जितने अक्षर हैं, उतना ही श्रुतज्ञान है क्योंकि एक-एक अक्षर से एक-एक श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है।
- एक मात्रावाले वर्ण हृस्व कहलाते हैं।
- दो मात्रावाले वर्ण दीर्घ कहलाते हैं।
- तीन मात्रावाले वर्ण प्लुत कहलाते हैं। और
- अर्ध मात्रावाले वर्ण व्यंजन कहलाते हैं।
व्यंजन-33 हैं, स्वर-9, हृस्व-9, दीर्घ-8, प्लुत ऐसे मिलकर 27 हैं। और अयोगवाह अं, अ:, x क तथा x 5 ऐसे चार हैं। कुल 64 होते हैं।
64 अक्षर की स्थापना
अ आ आइ, इ ई, ई3, उ ऊ ऊ3, ऋ ऋ ऋ3, लृ लृ लृ3, ए ए2 ए3, ओ ओर ओ3, औ और औ3,
क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह x क x प अं. अ:
इन 64 अक्षर के परस्पर सहयोग से एक कम करने पर कुल संयोगाक्षर 18446744073709551615 होती है।
पद
एक अक्षर से जो जघन्य ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अक्षर श्रुतज्ञान है। एक अक्षर पर दूसरे अक्षर की वृद्धि होने से अक्षर समास नाम का श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार एक-एक अक्षर की वृद्धि करने से संख्यात अक्षरों की वृद्धि तक अक्षर समास श्रुतज्ञान होता है, और संख्यात अक्षरों के मिलाप से एक पद नाम का श्रुतज्ञान होता है। पद तीन प्रकार के हैं। अर्थ पद, प्रमाण पद और मध्यम पद।
पद अक्षर
एक-एक अक्षर से अर्थकी प्राप्ति हो, वह अर्थ पद है; आठ अक्षर से निष्पन्न वह प्रमाणपद है और 16, 34, 83, 07, 888 इतने अक्षरों का ग्रहण एक मध्यम पद है।
8 अक्षरों का एक श्लोक गिनने से मध्यम पद में 51, 08, 84, 621 + 9/2 इतने श्लोक बनते हैं।
इससे सकल द्रव्यश्रुत के कुल अक्षर संख्या को मध्यम पद से भाग देने पर 112, 83, 58, 005 पद बनते हैं। वे बारह अंग के (अंग-प्रविष्ट के) कुल पद हैं और उपरान्त में शेष 8, 01, 08, 175 अक्षर बाकी रहते हैं। इतना अंगबाह्यश्रुत है।
अंगप्रविष्टश्रुत के भेद, विषय तथा पदों की संख्या तथा अंग बाह्य श्रुत के भेद तथा विषयका वर्णन आगामी कोष्ठक में दिया गया है।
द्रव्यश्रुत के दो भेद हैं- 1-अंगप्रविष्ट और 2-अंगबाह्य।
अंगप्रविष्ट श्रुत के बारह भेद हैं जो “द्वादशांगी” (बारह अंग) रूपसे प्रसिद्ध हैं।
द्रव्यश्रुत
अंगप्रविष्ट
|
अंगबाह्यश्रुत
|
बारह अंग |
चौदह प्रकीर्णक |
1. |
आचारांग |
1. |
सामायिक |
2. |
सूत्र कृतांग |
2. |
चतुर्विंशतिस्तव |
3. |
स्थानांग |
3. |
वंदना |
4. |
समवाय अंग |
4. |
प्रतिक्रमण |
5. |
व्याख्या प्रज्ञप्तिअंग |
5. |
वैनयिक |
6. |
ज्ञातृधर्मकथाअंग |
6. |
कृतिकर्म |
7. |
उपासकाध्ययन अंग |
7. |
दशवैकालिक |
8. |
अंतकृतदशांग अंग |
8. |
उत्तराध्ययन |
9. |
अनुत्तरोपपादक अंग |
9. |
कल्पव्यवहार |
10. |
प्रश्नव्याकरण अंग |
10. |
कल्पाकल्प |
11. |
विपाकसूत्र अंग |
11. |
महाकल्प |
12. |
द्रष्टिवाद अंग |
12. |
पुंडरिक |
- |
- |
13. |
महापुंडरिक |
- |
- |
14. |
निषिध्धिका/निसितिका |
बारह अंग-उनके विषय और पद संख्या
क्रम |
नाम |
विषय |
पद संख्या |
1 |
आचारांग |
इसमें मुनिवरों के आचारों का निरूपण है। |
18,000 |
2 |
सूत्रकृतांग |
ज्ञान के विनय आदि अथवा धर्म क्रिया में स्व-मत पर-मत की क्रिया के विशेषों का निरूपण है। |
36,000 |
3 |
स्थानांग |
पदार्थों के एक आदि स्थानों का निरूपण है; जैसे कि जीव सामान्यरूप से एक प्रकार, विशेषरूप से दो प्रकार, तीन प्रकार इत्यादि ऐसे कहे हैं। |
42,000 |
4 |
समवायअंग |
जीवादि छह द्रव्यों के द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि द्वारा वर्णन है। |
1,64,000 |
5 |
व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग |
जीव के अस्ति-नास्ति आदि 60,000 प्रश्न गणधर देवों ने तीर्थंकर के समीप किये, उनका वर्णन है। |
2,28,000 |
6 |
ज्ञातृधर्मकथाअंग |
तीर्थंकरो की धर्म कथा, जीवादि पदार्थों के स्वभावका वर्णन तथा गणधर के प्रशनों के उत्तर का वर्णन है। |
5,56,000 |
7 |
उपासकाध्ययनअंग |
ग्यारह प्रतिमा आदि श्रावक के आचार का वर्णन है। |
11,70,000 |
8 |
अंतकृतदशांगअंग |
एक-एक तीर्थंकर के काल में दस-दस अंतकृत केवली हुए, उनका वर्णन है। |
23,28,000 |
9 |
अनुत्तरोपपादकअंग |
एक-एक तीर्थंकर के काल में दस-दस महामुनि घोर उपसर्ग सहन करके अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए उसका वर्णन है। |
92,44,000 |
10 |
प्रश्नव्याकरणअंग |
इसमें भूतकाल और भविष्यकाल सम्बन्धी शुभ-अशुभ का कोई प्रश्न करे, उसके यथार्थ उत्तर कहने के उपाय का वर्णन है तथा आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी, निर्वेदनी-इन चार कथाओं का भी इस अंग में वर्णन है। |
93,16,00 |
11 |
विपाकसूत्रअंग |
कर्म के उदय के तीव्र मन्द अनुभाग का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा सहित वर्णन है। |
18400000 |
12 |
द्रष्टिवादअंग |
इस अंगमें 180 क्रियावाद, 84 अक्रियावाद, 67 अज्ञानिकवाद और 32 वैनयिकवाद ऐसे मिथ्या-दर्शन सम्बन्धी 363 कुवादों का वर्णन है और उनका खण्डन करने में पाँच अधिकार है।
1. परिकर्म, 2. सूत्र, 3. प्रथमानुयोग, 4. पूर्वगत (चौदहपूर्व) और 5. चूलिका |
1,08,68,56,005 |
- |
बारह अंग के कुल पद |
- |
112,83,58,005 |
|
|
एक सौ बारह करोड़, तिरासी लाख, अट्ठावन हजार, पाँच |
बारहवें द्रष्टिवाद अंग के पाँच अधिकार
पहला अधिकार- परिकर्म है
परिकर्म में गणिक के करणसूत्र हैं, इसके पाँच भेद हैं।
क्रम |
नाम |
विषय |
पद संख्या |
1 |
चन्द्रप्रज्ञप्ति |
चन्द्रमा के गमनादिक, परिवार, वृद्धि-हानि ग्रह आदि का वर्णन है। |
36,05,000 |
2 |
सूर्यप्रज्ञप्ति |
सूर्य के ऋद्धि, परिवार, गमन आदि का वर्णन है। |
5,03,000 |
3 |
जम्बूद्वीप |
जम्बूद्वीप सम्बन्धी मेरुगिरिक्षेत्र, कुलाचल प्रज्ञप्ति आदि का वर्णन है। |
3,25,000 |
4 |
द्वीपसागर-प्रज्ञप्ति |
द्वीपसागर का स्वरूप तथा वहाँ स्थित ज्योतिषी, व्यन्तर, भवनवासी देवों के आवास तथा वहाँ स्थित जिनमन्दिरों का वर्णन है। |
52,36,000 |
5 |
व्याख्यानप्रज्ञप्ति |
जीव-अजीव पदार्थों के प्रमाण का वर्णन है। |
84,36,000 |
|
परिकर्म के कुल पद |
1,81,05,000 |
- |
- |
एक करोड़, इक्यासी लाख, पाँच हजार |
दूसरा अधिकार - सूत्र है
इसमें मिथ्यादर्शन सम्बन्धी 363 कुवादों का पूर्व पक्ष लेकर उन्हें जीव पदार्थ पर लगाना-आदि का वर्णन है।
इसके पद (अट्ठासी लाख) 88,00,000
तीसरा अधिकार - प्रथमानुयोग है
इसमें प्रथम जीव का उपदेश योग्य तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि त्रेसठ शलाका पुरुषों का वर्णन है।
इसके पद (पाँच हजार) 5,000
चौथा अधिकार - पूर्वगत है
इसके चौदह भेद हैं, जो चौदह पूर्व के रूप में प्रसिद्ध है।
क्रम |
पूर्व |
विषय |
वस्तु अधिकार |
प्रत्येक अधिकारमें 20 पाहुड़/24 अनुयोग द्वार |
कुल पद की संख्या |
1 |
उत्पादपूर्व |
इसमें जीव आदि वस्तुओं के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य आदि अनेक धर्मों की अपेक्षा से भेद-वर्णन है। |
10 |
200/4800 |
1,00,00,000 |
2 |
अग्रायणीपूर्व |
इसमें सात सौ सुनय, दुर्नय और षट्द्रव्य, सप्त तत्त्व, नौ पदार्थों का वर्णन है। |
14 |
280/6720 |
96,00,000 |
3 |
वीर्यानुवादपूर्व |
इसमें छह द्रव्यों की शक्तिरूप वीर्य का वर्णन है। |
8 |
160/3840 |
70,00,000 |
4 |
अस्ति-नास्ति प्रवादपूर्व |
इसमें जीवादिक वस्तु का स्वरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से अस्ति; पररूप द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से नास्ति आदि अनेक धर्मों में विधि निषेध करके सप्तभंग द्वारा कथंचित् विरोध मिटाने रूप मुख्य-गौण करके वर्णन है। |
18 |
360/8640 |
60,00,000 |
5 |
ज्ञानप्रवादपूर्व |
इसमें ज्ञान के भेदों का स्वरूप, संख्या, विषय, फल आदि का वर्णन है। |
12 |
240/5760 |
99,99,999 |
6 |
सत्यप्रवादपूर्व |
इसमें सत्य, असत्य आदि वचनों की अनेक प्रकार की प्रवृत्ति का वर्णन है। |
12 |
240/5760 |
1,00,00,006 |
7 |
आत्मप्रवादपूर्व |
इसमें आत्मा (जीव) पदार्थ के कर्ताभोक्ता आदि अनेक धर्मों का निश्चय-व्यवहारनय की अपेक्षा से वर्णन है। |
16 |
320/7680 |
26,00,00,000 |
8 |
कर्मप्रवादपूर्व |
इसमें ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों के बंध, सप्त, उदय, उदीरणा, आदिका तथा क्रियारूप कर्मों का वर्णन है। |
20 |
400/9600 |
1,80,00,000 |
9 |
प्रत्याख्यानपूर्व |
इसमें पाप के त्याग का अनेक प्रकार से वर्णन है। |
30 |
600/14400 |
84,00,000 |
10 |
विद्यानुवादपूर्व |
इसमें सात सौ क्षुद्रविद्या और पाँचसौ महाविद्याओं का स्वरूप, साधन, मन्त्रादिक और सिद्ध हुए उनके फल का वर्णन है तथा अष्टांग निमित्त ज्ञान का वर्णन है। |
15 |
300/7200 |
1,10,00,000 |
11 |
कल्याणवादपूर्व |
इसमें तीर्थंकर, चक्रव्रर्ती आदि के गर्भ कल्याणक के उत्सव तथा उनका कारण षोडशभावना आदि, तपश्चरण आदि तथा चन्द्रमा, सूर्यादिक के गमन, विशेष आदि का वर्णन है। |
10 |
200/4800 |
26,00,00,000 |
12 |
प्राणवादपूर्व |
इसमें आठ प्रकार के वैदक तथा भूतादिक की व्याधि को दूर करने के मंत्रादिक तथा विष दूर करने के उपाय और स्वरोदय आदि का वर्णन है। |
10 |
200/4800 |
13,00,00,000 |
13 |
क्रियाविशालपूर्व |
इसमें संगीतशास्त्र, छंद, अलंकारादिक तथा चौसठ कला गर्भाधान आदि चौरासी क्रिया, सम्यग्दर्शनादि एक सौ आठ क्रिया, देववंदनादि, पच्चीसक्रिया, नित्यनैमित्तिक क्रिया इत्यादि का वर्णन है। |
10 |
200/4800 |
9,00,00,000 |
14 |
त्रिलोकपूर्व |
इसमें तीन लोक का स्वरूप बिन्दुसार, बीजगणित आदि का स्वरूप, तथा मोक्ष का स्वरूप और मोक्ष के कारणभूत क्रिया का स्वरूप इत्यादि का वर्णन है। |
10 |
200/4800 |
12,50,00,000 |
|
कुल |
|
195 |
3900/93600 |
95,50,00,005 |
पिचानवे करोड, पचास लाख, पांच |
पाँचवाँ अधिकार चूलिका है। उसके पाँच भेद हैं।
क्रम |
नाम |
विषय |
पद की संख्या |
1 |
जलगता चूलिका |
जलका स्तम्भन करना, जल में चलना, अग्निगतता चूलिका में अग्नि स्तम्भन करना, अग्नि में प्रवेश करना, अग्नि का भक्षण करना इत्यादि के कारणभूत मंत्र-तंत्रादि की प्ररूपणा है। |
2,09,89,200 |
2 |
स्थलगता चूलिका |
मेरुपर्वत, भूमि इत्यादि में प्रवेश करना, शीघ्रगमन करना इत्यादि क्रिया के कारणरूप मंत्र, तंत्र तपश्चरणादि की प्ररूपणा है। |
2,09,89,200 |
3 |
मायागत चूलिका |
इसमें मायामयी इन्द्रजाल विक्रिया के कारणभूत मंत्र, तंत्र तपश्चरणादि की प्ररूपणा है। |
2,09,89,200 |
4 |
रूपगता चूलिका |
इसमें सिंह, हाथी, घोड़ा, बैल, हिरण इत्यादि अनेक प्रकार के रूप बना लेने के कारणभूत मंत्र, तंत्र तपश्चरणादि की प्ररूपणा है तथा चित्राम काष्ठलेप आदि के लक्षणका वर्णन है। |
2,09,89,200 |
5 |
आकाशगता चूलिका |
इसमें आकाश में गमन आदि के कारणभूत मंत्र, यंत्र, तंत्रादि की प्ररूपणा है। |
2,09,89,200 |
चूलिका के कुल पद |
10,49,46,000 |
बारहवें दृष्टिवाद अंगके प्रत्येक अधिकार के कुल पद की संख्या
1 |
परिकर्म |
1,81,05,000 |
2 |
सूत्र |
88,00,000 |
3 |
प्रथमानुयोग |
5,000 |
4 |
पूर्वगत (14 पूर्व) |
95,50,00,005 |
5 |
चूलिका |
10,49,46,000 |
कुल पद |
108,68,56,005 |
एक सौ आठ करोड़ अड़सठ लाख छप्पन हजार पाँच |
अंगबाह्य सूत्र
क्रम |
प्रकीर्णक |
विषय |
1 |
सामायिक |
नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावना + छह |
2 |
चतुर्विशतिस्तव |
चौबीस भगवान की महिमा |
3 |
वंदना |
एक तीर्थंकर के आश्रय से वंदना स्तुति |
4 |
प्रतिक्रमण |
सात प्रकार का प्रतिक्रमण-दैवसिक, रात्रिक, ऐरियापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, उत्तमार्थ |
5 |
वैनयिक |
पाँच प्रकारका विनय
- 1. लोकानुवृत्तिविनय
- 2. अर्थनिमित्तक विनय
- 3. कामतंत्रविनय
- 4. भवविनय
- 5. मोक्षविनय
|
6 |
कृतिकर्म |
अरिहन्तादिक की वन्दना की क्रिया |
7 |
दशवैकालिक |
मुनि के आचार, आहार की शुद्धता |
8 |
उत्तराध्ययन |
परीषह-उपसर्ग सहन करने का विधान |
9 |
कल्पव्यवहार |
मुनि के योग्य आचरण और अयोग्य सेवन का प्रायश्चित्त |
10 |
कल्पाकल्प |
मुनि के योग्य और अयोग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से वर्णन |
11 |
महाकल्प |
जिनकल्पी मुनि को प्रतिमायोग, त्रिकालयोग और स्थविरकल्पी मुनि की प्रवृत्ति |
12 |
पुंडरिक |
चार प्रकार के देवों में उत्पन्न होने का कारण |
13 |
महापुंडरिक |
इन्द्रादिक महा ऋद्धिधारी देव में उत्पन्न होने का कारण |
14 |
निषिद्धिका/निसितिका |
अनेक प्रकार की शुद्धता के निमित्त से प्रायश्चित्तों का प्ररूपण |